उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में राज्य सत्ता संग्राम या महासंग्राम …क्या योगी से उत्तर प्रदेश की जनता वास्तव में नाराज है..या फिर बी जे पी के भीतर ही योगी के साथ खेल खेला जा रहा है..

 

                                                             

                                                                                                                  

देहरादून …. उत्तरप्रदेश में अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनाव बिल्कुल  सामने हैं और देश में विभिन्न एजेंसियां प्रदेश में बी जे पी और समाजवादी पार्टी के बीच कड़ा  मुकाबला होने के कयास लगा रही  हैं। मगर ऐन चुनाव से पहले ही योगी सरकार के कुछ मंत्री और विधायक पूरे पाँच साल सत्ता सुख भोगकर आज पाला बदल कर अखिलेश यादव के पाले में खड़े हो चुके हैं और आगे न जाने ऐसे कितने मौकापरस्त छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं ये भी शीघ्र ही जनता के सामने आ जाएगा। इन में अधिकांश लोग वही हैं जो पिछले चुनाव में अपनी पार्टी को छोड़कर और राजनीतिक माहौल की हवा भाँपकर भाजपा में आए थे। तब शायद उन्हें ये एहसास भी नहीं रहा होगा कि बहुमत मिल जाने पर योगी जैसे व्यक्ति को पार्टी सरकार का मुखिया बना देगी। मगर सच तो यही है तमाम विवादों के बीच योगी किसी राजनीतिक दबाव की परवाह न करते हुए न केवल पूरे पाँच साल अपनी सरकार चलाने में कामयाब रहे बल्कि अपने समर्थकों और अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच ही नहीं मगर पूरे उत्तर भारत में एक बड़े वर्ग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सहज विकल्प के रूप में पहली पसंद बन कर भाजपा के भीतर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद सबसे मजबूत और उन के नंबर दो तथा भरोसेमन्द गृह मंत्री अमित शाह के लिए चुनौती भी बन चुके हैं। राजनीतिक रूप से अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी इस समय प्रदेश में भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन रही है उन्होंने किसान आंदोलन से प्रभावित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के  जाटलेंड क्षेत्र में राष्ट्रीय लोक दल सहित प्रदेश में कई छोटे छोटे जातीय दलों को साथ लेकर एवं चाचा शिवपाल के साथ सुलह करके एक मजबूत गठबंधन तैयार कर लिया है और प्रदेश की जनता के सामने खुद को बी जे पी के एकमात्र  सशक्त विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने में कामयाबी भी हासिल कर ली है मगर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात ये  है कि प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रही मायावती अभी तक खामोशी ओढ़े हुए है। राजनीतिक  जानकारों का मानना है कि यह सब बहुत बड़ा राजनीतिक शतरंज का खेल है। स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान भाजपा में आने से पहले मायावती के खास लोगों में शामिल थे और अब उनके सपा में जाने के कयास भी लगाए जा रहे हैं। इनका असमय पार्टी छोड़ना बी जे पी के लिए कम मगर योगी के लिए ज्यादा नुकसान दायक है। चुनाव के बाद यदि समाजवादी पार्टी जीत जाती है तो ये लोग फिर सत्ता की मलाई चाटने लगेंगे मगर यदि भाजपा किसी तरह कुछ पीछे छूट जाती है या बहुमत के आसपास अटकती है या फिर मामूली बढ़त ले लेती है तो तब पैदा होने वाली परिस्थिति  में यही लोग फिर बी जे पी सरकार बनाने के लिए या उसे ताकत देने के लिए  मददगार हो सकते हैं मगर योगी को मुख्यमंत्री न बनाने की शर्त पर। और यही शतरंज का वह खेल है जिसमें बी जे पी तो जीत जाएगी मगर योगी फिर मोदी के विकल्प नहीं बन पाएंगे। यहाँ पर यह भी याद करने की जरूरत है  कि योगी के मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद मोदी – योगी के जोशीले नारों का चौंकाने वाला परिणाम यही हुआ था कि उन्ही की स्वयं की खाली की गई  गोरखपुर संसदीय सीट पर  1989 से 2018 यानि पिछले तीस साल से लगातार आठ संसदीय चुनावों में गोरक्ष पीठ के संत अवैद्यनाथ और आदित्यनाथ के जीतने के बाद और योगी  के मुख्य मंत्री बनते ही बी जे पी गोरखपुर सीट पर सपा के उम्मीदवार प्रवीण कुमार निषाद से संसदीय  उप चुनाव हार गई। चौंकाने वाली बात यह भी है कि यही प्रवीण कुमार वर्तमान में बी जे पी से सांसद हैं और उनके पिता संजय निषाद उत्तरप्रदेश में निषाद पार्टी के अध्यक्ष हैं जो कि एन डी ए के सहयोगी हैं। यह महत्वपूर्ण  चुनाव ये भी तय करेगा कि  प्रदेश की जनता वास्तव में योगी सरकार से नाराज है या नहीं। यह  चुनावी बिसात सिर्फ सपा, भाजपा, बसपा,कांग्रेस और अन्य दलों के बीच उत्तर प्रदेश की सत्ता के लिए ही बिछ रही है या फिर बी जे पी के भीतर ही होने वाले भविष्य के संभावित सर्वोच्च संग्राम यानि मोदी के उत्तराधिकारी को तय करने के लिए भी है? ये आज सोचने और समझने की बात है।  

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