आखिर ये तो देर सबेर होना ही था। खुद को उत्तराखंड का शेर बताने वाले हरक की हनक अब उतर ही गई जब ये उन्होंने सोचा भी नहीं होगा और बी जे पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्ढा ने हरक सिंह रावत को 6 साल के लिये पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया साथ ही साथ मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी उन्हें तुरन्त ही सरकार से भी बर्खास्त कर दिया। 2017 में त्रिवेंद्र रावत सरकार के गठन के बाद से ही हरक सिंह बार बार अपनी ही सरकारों के ख़िलाफ़ वक्तव्य देकर पार्टी और सरकार दोनों को असहज करते रहे ।प्रदेश नेतृत्व और पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता हरक के इस मनमाने आचरण पर बेहद नाराज़ थे मगर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की दख़ल के कारण असहाय से हरक को सहने को विवश थे।सरकार के पाँच साल पूरे होने और नए चुनाव घोषित होने से पहले ही उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं ने उन्हें उत्तराखंड राजनीति में पहले से बेहद विवादास्पद व्यक्ति के साथ एक अविश्वासी नेता की भूमिका में खड़ा कर दिया था। जिन हरीश रावत का उनके मुख्यमंत्री रहते कथित रूप से हरक सिंह रावत द्वारा कराये गये एक स्टिंग आपरेशन ने हरीश के राजनीतिक केरियर पर ही एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया था उन्ही हरीश को वो हरीश भाई कहने लगे और अपनी पिछली सरकार को गिराने में सबसे बड़ी भूमिका निभाने वाले हरक सिंह के कांग्रेस में लौटने की बात पर जब हरीश भाई ने भी इतना तक कह दिया कि सांप और नेवले भी आपदा में एक साथ हो जाते हैं तो यह हरक सिंह को खुला आमंत्रण का संकेत था। ठीक इस वक्तव्य के बाद ही हरक सिंह ने अपने चुनाव लड़ने ना लड़ने,अपनी सीट बदलने और अपनी बहू अनुकृति के लिये लैंसडाउन से टिकट के लिये दबाव बनाना शुरू कर दिया जिसका वहाँ के वर्तमान विधायक दिलीपसिंह रावत ने ना सिर्फ़ खुलकर विरोध किया बल्कि वनमंत्री के रूप में हरक सिंह द्वारा कराये गए कामों में भ्रष्टाचार के संदर्भ में मुख्यमंत्री को शिकायती पत्र भी भेज दिया। नतीजा सामने है। मगर अफ़सोस है कि उत्तराखंड की राजनीति फिर एक बार मौक़ापरस्ती के दलदल में नज़र आ रही हैऔर इस दल दल में अभी और भी कीचड़ बढ़ना तय है। अब उत्तराखंड की जनता ही फैसला करेगी कि कुर्सी की लड़ाई में इस कीचड़ में फिर कमल खिलेगा, हाथ की ताक़त बढ़ेगी या फिर झाड़ू से सफ़ाई हो जाएगी।