देहरादून/मसूरी
प्रधान संपादक की कलम से
मुझे याद है जब 16 December 2017 को राहुल गाँधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद सम्भाला था तो उस समय गुजरातऔर हिमाचल विधानसभा के चुनाव परिणाम आने वाले थे और तब गुजरात चुनावों में राहुल गाँधी की अगुवाई में कांग्रेस ने सत्ताधारी बी जे पी के खिलाफ बेहद आक्रामक रणनीति बनाकर, राज्य की सामजिक गणित को समझ कर एक कुशल व्यूह रचना के साथ चुनाव लड़ा था, यहाँ तक कि जब कई राजनैतिक पंडित तक गुजरात में बी जे पी की पराजय की संभावनाएं जता चुके थे तब नतीजन प्रधानमंत्री मोदी को भी विवश होकर अपनी पूरी ताकत के साथ गुजरात चुनाव में उतरना पड़ा और फिर किसी तरह से जीत हासिल कर बी जे पी इज्जत बचाने में कामयाब हुयी थी.भले ही कांग्रेस तब गुजरात और हिमाचल में चुनाव हार गयी मगर तब राहुल गाँधी हतोत्साहित कांग्रेस में एक उम्मीद जगाने का काम कर गए थे और कांग्रेस को अगले लोक सभा चुनावों में उम्मीद की एक किरण नजर आने लगी थी.पार्टी अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में राहुल गाँधी ने पिछले लोकसभा चुनावों से सबक लेते हुए पार्टी में मणिशंकर अय्यर,शशि थरूर और सैफुद्दीन सोज जैसे बयानबीरों को सख्त लहजे में चेतावनी देते हुए कहा था कि वे एक बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं. इस लड़ाई को पार्टी का कोई भी नेता अपने बयानों से कमजोर नहीं कर सकता. अगर कोई ऐसा करता है तो उसके खिलाफ सख्त एक्शन लिया जाएगा.
राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद 2018 में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हुए विधान सभा चुनाव परिणामों ने भी कांग्रेस के भीतर एक अलग सा उत्साह पैदा कर दिया और उसे लगने लगा कि मोदी जी की टीम अजेय नहीं है और यदि अलग रणनीतिक तरीके से लड़ा जाय तो उन्हें पराजित भी किया जा सकता है. जबकि पिछले दस सालों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सत्तारूढ़ कांग्रेसनीत सरकार के कार्यकाल में हुए लोक सभा चुनावों में तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा आगे प्रधानमंत्री पद की अनिच्छा जताने के कारण 2014 लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी को पार्टी द्वारा प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया गया था मगर पहले अपनी पार्टी में अध्यक्ष की जिम्मेदारी नकारने और फिर ज्यादातर विदेशों की लम्बी यात्रायें या फिर सरकार में कोई मंत्री पद की जिम्मेदारी न निभाने की बात हो या फिर देश में महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनकी खामोशी हो इन से उनकी छवि एक बड़े और परिपक़्व नेता के रूप में नहीं उभर पायी बल्कि संसद में अपनी ही सरकार के बिल की कॉपी फाड़ देने से उनकी इमेज पर बहुत ख़राब प्रभाव पड़ा था जिसमें उन्हें देश में ही नहीं बल्कि दुनिया में भी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था मगर उसके बाद भी राहुल ने स्वयं में सुधार का कभी गंभीर प्रयत्न तक नहीं किया नतीजा यही रहा कि 2014 में बी जे पी केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हो गयी, नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और कांग्रेस को पूरे देश में बहुत बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा .मगर लोकसभा चुनावों में बड़ी पराजय के बाद कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालते ही राहुल द्वारा प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा सरकार के प्रति बेहद आक्रामक और तेज हमलों ने पार्टी में ये धारणा बना ली कि राहुल, मोदी और अमित शाह का मुकाबला करने में सक्षम हैं और फिर यही इमेज उन्हें दिशाहीन और नेतृत्वविहीन विपक्ष की धुरी बनाने में सहायता कर सकती थी.वो चाहते तो एक बड़े नेता की तरह देश भर में घूम कर अपने संगठन को पुनर्जीवित करते, कांग्रेस को जमीनी स्तर पर मजबूत करते, पूरे देश में गांव गांव तक कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को राजनैतिक लड़ाई लड़ने के लिए ऊर्जा देते ताकि मोदी और अमित शाह जैसे बेहद चालाक और होशियार रणनीतिकारों से टक्कर ली जा सके मगर संगठन में उनका काम पार्टी बैठकों से ज्यादा मात्र भाषणों और ट्विटर या फिर सोशल मीडिया तक ही सीमित रहा.यहाँ तक भी ठीक था मगर धीरे धीरे राहुल जिन युवाओं के दम पर बी जे पी को परास्त करने का दावा करते थे वही नौजवान मोदी की सबसे बड़ी ताकत बन गए. राहुल ये भूल गए कि उनका सामना उस टीम के साथ है जो थोड़ा सा भी कमजोर पड़ने पर ज्यादा आक्रामक हो जाती है. वो टीम जो जनता का मूड समझने में माहिर है. वो एक्शन ओरिएंटेड टीम है और जानती है कि विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी ताकत को कैसे बढ़ाया जाय. राजनीति के सारे हथियारों साम दाम दंड भेद का सबसे अच्छा उपयोग करना जानती है और उसी के अनुसार काम भी करती है. वो आलोचनाओं से घबराती नहीं बल्कि सीखती है. मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने एक चालाक रणनीति से राहुल को घेर कर उस जगह खड़ा कर दिया जहाँ सोशल मीडिया पर उनके मीम बनने लगे,उन्हें पप्पू की इमेज में बाँध दिया जिससे बाहर निकलने के प्रयास मजबूती से किये जाने चाहिए थे मगर राहुलऔर उनकी टीम इन सभी मामलों में फिसड्डी साबित हुए. उनके सलाहकारों की मंडली में ऐसे प्रभावशाली लोग नहीं थे जो राजनीतिक लड़ाई के ऐसे चतुर हथियारों का मुकाबला करने की सामर्थ्य रखते हों. इसके विपरीत राहुल के खुद के बयानों जैसे “इधर से आलू डालो उधर से सोना निकलेगा” और “चौकीदार चोर है” जैसे नारों को जिस प्रकार तोड़ मरोड़कर उनके ही खिलाफ हथियार के रूप में उपयोग करने में बी जे पी और उनकी सहयोगी पार्टियां सफल हो गयी.ये कांग्रेस और विपक्ष की बहुत बड़ी नाकामयाबी थी कि पुलवामा में आतंकियों के एक आत्मघाती हमले में चालीस सैनिकों की मौत से पूरे देश के लोगों में इस घटना के प्रति फैले आक्रोश को वो बी जे पी सरकार के खिलाफ बहुत बड़ा हथियार बनाने में भी वो असफल रहे और केवल चार पांच महीने पहले कमजोर पड़ता दिख रहा NDA गठबंधन बालाकोट एयर स्ट्राइक और अभिनन्दन वापसी के बाद भारी बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब हो गया जिसमें अकेली बी जे पी ही 303 सीट लेकर बहुमत पा गयी. नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में जब राहुल से राजनीतक परिपवक्ता की उम्मीदें थी वहीं चुनावों में पार्टी की हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से ही त्यागपत्र दे दिया और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और प्रदेश संगठनों की मार्मिक अपील पर भी वो अपनी जिद पर अड़े रहे और कांग्रेस को उन हालात में छोड़ दिया कि उसके बाद अभी तक पार्टी एक स्थायी अध्यक्ष तक नहीं चुन पायी है. पार्टी के वरिष्ठ लोगों ने एक अलग समूह बना कर पार्टी नीतियों की आलोचना करनी शुरू कर दी है. वक्त गुजरने के साथ साथ राहुल की बहुचर्चित युवा मित्र टोली भी टूटने लगी और जो बचे खुचे लोग हैं उनमें से जनाधार रखने वाले भी शायद अपना ठौर ठिकाना बदलने के लिए मौके तलाश कर रहे हैं.
देश की वर्तमान परिस्थितियों को समझने के लिए राहुल को सबसे पहले अपने आप पर भरोसा करना होगा और ये समझना होगा कि कांग्रेस ने पिछले लोक सभा चुनाव में भले ही देश भर में मात्र 52 सीट जीती हों मगर उनकी पार्टी को 11.9 करोड़ वोट भी मिले थे जो कि कोई छोटी संख्या नहीं है. उन्हें ये भी समझना होगा कि ये वो वोट हैं जो मोदी जी की लोकप्रियता की लगभग चरम सीमा और कांग्रेस की सबसे कमजोर स्थिति होने के बावजूद उसे मिले हैं. राहुल भले ही अब कांग्रेस के अध्यक्ष न हों मगर जिस प्रकार से वो पार्टी की विभिन्न योजनाओ और नीतियों की घोषणा करते हैं, जिस प्रकार से वो प्रधानमंत्री मोदी को मीडिया में घेरते हों यहाँ तक कि उन पर व्यक्तिगत आरोप लगाते हों, जिस तरीके से वो ट्विटर और फेसबुक पर बहुत एक्टिव है और इस महामारी के दौर में सरकार को घेरने की लगातार कोशिश करते हैं उसके पीछे शायद उनका यही जताने का प्रयास है कि विपक्षी नेताओं में एकमात्र वही ऐसे नेता है जो मोदी- शाह की जोड़ी से मुकाबला कर सकते हैं. मगर जिस प्रकार से ट्विटर पर किसान आंदोलन के समर्थन में पार्टी समर्थन की घोषणा करके खुद विदेश भ्रमण पर निकल जाने की घटना हुयी उससे तो से भूतपूर्व अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा की लिखी बात ही सही साबित हो रही है कि राहुल उस विद्यार्थी की तरह हैं जिसे विषय का ज्ञान तो नहीं है मगर अपने अध्यापक को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा हो.
कांग्रेस को यह चिंतन करना होगा कि आगामी चुनावों में उसकी सबसे बड़ी ताक़त क्या हो सकती है.पार्टी का एक बड़ा धड़ा खुलकर राहुल के पक्ष में खड़ा है मगर राहुल गांधी दोबारा अध्यक्ष बनने को फिलहाल तैयार नहीं हैं मगर उन्हें समझना होगा कि विपत्तियों का डट कर सामना करके ही व्यक्ति की शक्ति का पता चलता है. उन्हें पार्टी को ताकत देनी है तो सामर्थ्य जुटानी पड़ेगी या फिर हो सकता है कि वो अपने पक्ष में माहौल बनने का अवसर ढूंढ रहे हों और संभव हो सकता है कि तब वे प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए मना न करें मगर सच यही है आज कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक़्क़त यही है कि अब उसके पास राहुल गाँधी के अलावा कोई विकल्प नहीं है.नरेंद्र मोदी की आक्रामकता और काम करने की शैली का मुक़ाबले करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी तेज़-तर्रार नेता अभी कांग्रेस और विपक्ष के पास नहीं है.नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ताकत उनका जनता से सीधा संवाद कायम रखना है. वो जनता का मूड समझने में बेहद माहिर नेता हैं.जनता क्या सुनना चाहती है,उनसे बेहतर कोई राजनेता नहीं समझ सकता.नरेंद्र मोदी जानते हैं कि महामारी के दूसरे दौर में उनकी लोकप्रियता पर बुरा असर पड़ा है मगर वो ऐसी परिस्थितियों से बाहर निकलने का रास्ता जानते हैं और यदि रास्ता न हो तो वैकल्पिक रास्ता बनाने के प्रयासों में जुटे होंगे. इसलिए राहुल गाँधी को अब समझना पड़ेगा कि उन्हें जितनी जल्दी हो पार्टी का अध्यक्ष पद स्वीकार करना होगा. उन्हें अपने तीखे तेवर और अपनी कल्पनाशीलता को अपनाना होगा मगर प्रधान मंत्री के खिलाफ व्यक्तिगत अपमानजनक टिप्पणियों से बचकर सरकार की असफलताओं को गंभीरता के साथ जनता के सामने लाना होगा.पार्टी छोड़ चुके अपने पुराने मित्रों को वापस अपने साथ जोड़ना होगा जो कि तभी संभव होगा जब वो विश्वास दिला सकेंगे कि वो मोदी शाह योगी की टीम का मुकाबला करने में सक्षम हैं.युवाओं की समस्याओं को लेकर उनके बीच जाना होगा और उनको पार्टी से जोड़ना होगा.राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ बेहतर समन्वय और सामंजस्य बनाकर सरकार की असफलताओं के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़नी होगी मगर ट्विटर या फेसबुक पर नहीं जमीन पर.ये सही है कि राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपना जनाधार खोया है मगर यदि वो अपनी जिम्मेदारियों को समझकर और नाकामियों के कारणों पर ध्यान देते, उनमें सुधार करते, पार्टी के वरिष्ठ नेताओ के साथ बेहतर संवाद और विश्वास करते तो ऐसी कोई वजह नहीं थी कि पार्टी फिर से जोश के साथ उठ खड़ी होती. उन्हें समझना चाहिए कि लोकतंत्र में कोई जीत स्थायी नहीं होती.आज की परिस्थितियों में फिलहाल राहुल गाँधी को ही मोदी का मुकाबला करने के लिए तैयार होना होगा. कांग्रेस के पास दो ही विकल्प हैं,अपनी पार्टी को जिताना या बी जे पी को हराना.अब उन्हें अपने विकल्पों पर गहन मंथन तो करना होगा क्योंकि सिर्फ बी जे पी को हरा देने से उनका मकसद पूर्ण नहीं हो सकता और उन्हें ये बात तो कतई नहीं भूलनी चाहिए कि कांग्रेस, बी जे पी से ज्यादा उन राजनीतिक पार्टियों के कारण कमजोर हुई है जिनसे वह बी जे पी को हराने की उम्मीद कर रहे हैं और अपनी हार पर नहीं बल्कि उन्ही की जीत पर खुश हो रही है. राहुल गाँधी ने कुछ दिन पहले वर्तमान मोदी सरकार को निशाना बनाते हुए अपने ट्वटर हैंडल पर फिलॉसफर कार्ल पॉपर को उद्धृत करते पोस्ट किया था “सच्चा अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, इसे हासिल करने से इंकार करना है” जबकि यह बात उन पर खुद लागू होती है और इसे राहुल जितनी जल्दी समझ जाएंगे उनकी राहें अपने आप आसान होती जाएंगी.. मगर फिर वही लाख टके का सवाल कि क्या राहुल ऐसा करेंगे. फिलहाल कांग्रेस का भविष्य सिर्फ राहुल गाँधी पर ही निर्भर दिखता है. राहुल जितना जल्दी अपनी पार्टी की जिम्मेदारी को उठाने को तैयार होंगे उतना ही पार्टी के लिए अच्छा होगा वरना फिर वही ट्विटर,ट्विटर और ट्विटर.
अगले अंक में ………उत्तराखंड..स्वास्थ्य विभाग…मरहम पट्टी नहीं ..इलाज की जरूरत है