हमारे भारत देश के संविधान निर्माता भारत रत्न डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर की 129वीं जयंती पर कल पूरे देश ने उनको श्रद्धांजलि देकर बस एक खानापूर्ति सीपूरी कर दी.अखबारों के पहले पन्ने पर जिस महान हस्ती की तस्वीर होनी चाहिए थी वो पिछले सालों की तरह इस बार भी अधिकांश पेपर के भीतरी पन्नो पर मिली. आज जब टी वी चैनल के लिए बाबा साहब से जरूरी खबर जमाती, कोरोना ही बने हुए हैं. इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? जबकि हकीकत तो यही बयां कर रही है कि आज इस कोरोना की महामारी में जो मजदूर,दलित,शोषित,भूमिहीन और वंचित वर्ग सबसे बड़ा कष्ट झेल रहा है बाबा साहब ने उसी वर्ग के लोगों के हितों की लड़ाई में अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया था.यह एक कटु सत्य भी रहा है कि इस के पीछे राजनीतिक सत्ताओं का खेल और कुचक्र जिम्मेदार रहा हैजिसने बाबा साहब को सिर्फ दलितों का नेता प्रचारित कर उनकी राजनीतिक विद्वता को सीमित कर दिया .बाबा साहब यही तो चाहते थे कि जिन हालातों में इस देश के ८० % से ज्यादा दलित .वंचित,भूमिहीन किसान, और कमजोर वर्ग के लोग अपना जीवन जी रहे हैं उसे जीने के लायक बनाया जाय.उनके आवासों में सफाई और उनके परिवारों के स्वास्थ्य की देखभाल सहित उन्हें हर प्रकार की सुरक्षा और सहायता देना ही राजधर्म है.मगर आज आजादी के 73 सालों के बाद भी यही वर्ग जस का तस बस जी रहा है. ऐसे महान क़ानून वेत्ता और प्रकांड विद्वान बाबा साहब को जो सम्मान देश में मिलना चाहिए वो मात्र एक औपचारिक कार्यक्रम आयोजित कर निपटा दिया जाता है. मगर उनकी या उनके विचारों की लड़ाई अभी भी जारी है. आज इस महामारी से निपटने के लिए जिस सोशल डिस्टेंसिंग को ही हम एकमात्र तरीका बता रहे हैं, उसका पालन इन लोगों की बस्तियों में कैसे हो रहा होगा ये बहुत सोचनीय विषय है.आठ बटे आठ की झोपड़ी नुमा कमरे में आठ आठ लोग अपना जीवन गुजार रहे हैं तो इन हालातों में तो यही बस्तियां कोरोना का सबसे सॉफ्ट कार्नर भी सिद्ध हो सकती हैं.कल प्रधानमंत्री जी के द्वारा जब लॉक आउट की अवधि बढ़ाने की घोषणा होते ही तो यही या इन जैसे हालातों के मारे लोग विवश होकर जिस प्रकार से कल बांद्रा स्टेशन के पास इकठ्ठा हुए वही काफी कहानी बयां कर सकता है.अब कुछ टी वी चैनल भले ही इसे भी साम्प्रदायिक रंग देने की भरपूर कोशिश में लगे थे मगर सत्य को नकारने से सत्य छुपता नहीं है.और सत्य सिर्फ यही है कि ये लोग दोतरफा मार खाये हुए लोग हैं जिनको कुछ सूझ ही नहीं रहा,सोशल डिस्टैन्सिंग को सुनते तो हैं मगर उसका अर्थ ये शायद ढंग से समझते भी नहीं हैं क्योंकि एक छोटे से कमरे में आठ दस लोगों के समूह में रहने की आदत या मजबूरी बन चुकी है ,जिसमे न तो स्वच्छ हवा और न पीने पानी की व्यवस्था है.अब इन्हे कैसे एक मीटर की दूरी पर रहने को कहा जाय और कहा भी जाय तो कहाँ रहा जाय. इन्हे क्वारन्टिन करके कैसे अलग साफ़ और हवादार कमरे में रखा जाय जबकि ये लोग आज भी अमानवीय परिस्थितियों में अपना जीवन काट रहे हैं. कोरोना संकट से ज्यादा भय इन्हे अपने परिवार के पेट भरने की चिंता सता रही है और इसी कारण ये सरकार द्वारा जारी की गयी स्वास्थ्य सम्बन्धी चेतावनियों को ज्यादा ध्यान भी नहीं दे पा रहे.. मजबूरी कोई भी हो मगर कल इन्ही परिस्थितियों में बाबा साहब की जयन्ती मनाई गयी जिन परिस्थितियों में सबसे ज्यादा वही लोग कष्ट में हैं जिनके लिए उन्होंने लड़ाई लड़ी थी….बाबा साहब को हमारी और से भावभीनी श्रद्धांजलि ..